डेरी उद्योग या दुग्ध उद्योग, कृषि की एक श्रेणी है। यह पशुपालन से जुड़ा एक बहुत लोकप्रिय उद्यम है जिसके अंतर्गत दुग्ध उत्पादन, उसकी प्रोसेसिंग और खुदरा बिक्री के लिए किए जाने वाले कार्य आते हैं। इसके वास्ते गाय-भैंसों, बकरियों या कुछेक अन्य प्रकार के पशुधन के विकास का भी काम किया जाता है। डेरी फार्मिंग के अंतर्गत दूध देने वाले मवेशियों का प्रजनन तथा देखभाल, दूध की खरीद और इसकी विभिन्न डेरी उत्पादों के रूप में प्रोसेसिंग आदि कार्य सम्मिलित हैं। भारत गांवों में बसता है। हमारी ७२ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण है तथा ६० प्रतिशत लोग कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। करीब ७ करोड़ कृषक परिवार में प्रत्येक दो ग्रामीण घरों में से एक डेरी उद्योग से जुड़े हैं। भारतीय दुग्ध उत्पादन से जुड़े महत्वपूर्ण सांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार देश में ७० प्रतिशत दूध की आपूर्ति छोटे/ सीमांत/ भूमिहीन किसानों से होती है। भारत में कृषि भूमि की अपेक्षा गायों का ज्यादा समानता पूर्वक वितरण है। भारत की ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में डेरी-उद्योग की प्रमुख भूमिका है। देश में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में इसे मान्यता दी गई है। कृषि और डेरी-फार्मिंग के बीच एक परस्पर निर्भरता वाला संबंध है। कृषि उत्पादों से मवेशियों के लिए भोजन और चारा उपलब्ध होता है जबकि मवेशी पोषण सुरक्षा माल उपलब्ध कराने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के दुग्ध उत्पादों दूध, घी, मक्खन, पनीर, संघनित दूध, दूध का पाउडर, दही आदि का उत्पादन करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत का अपना विशेष स्थान है और यह विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक और दुग्ध उत्पादों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। संयोग से भारत विश्व में सबसे कम खर्च पर यानी २७ सेंट प्रति लीटर की दर से दूध का उत्पादन करता है (अमरीका में ६३ सेंट और जापान में २.८)। यदि वर्तमान रूझान जारी रहता है तो मिनरल वाटर उद्योग की तरह दुग्ध प्रोसेसिंग उद्योग में भी बहुत तेजी से विकास होने की पर्याप्त संभावनाएं हैं। अगले १० वर्षों में तिगुनी वृद्धि के साथ भारत विश्व में दुग्ध उत्पादों को तैयार करने वाला अग्रणी देश बन जाएगा। रोजगार की संभावनाएं इस उद्योग के तहत सरकारी और गैर- सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में रोजगार के अवसर मौजूद हैं। राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड (एसोसिएशन) विभिन्न स्थानों पर स्थित इस क्षेत्र का प्रमुख सार्वजनिक प्रतिष्ठान है, जो कि किसानों के नेतृत्व वाले व्यावसायिक कृषि संबंधी कार्यों में संलग्न है। देश में अब ४०० से अधिक डेरी संयंत्र हैं जहाँ विभिन्न प्रकार के दुग्ध उत्पाद तैयार किए जाते हैं। उन्हें संयंत्रों के दक्षतापूर्ण संचालन के वास्ते सुयोग्य और सुप्रशिक्षित कार्मिकों की आवश्यकता होती है।
डेयरी डेयरी में पशुओं का दूध निकालने तथा तत्सम्बधी अन्य व्यापारिक एवं औद्योगिक गतिविधियाँ की जाती हैं। इसमें प्रायः गाय और भैंस का दूध निकाला जाता है।आम तौर पर जानवरों को हाथ से दुहा जाता थ और इनके झुंड का आकार काफी छोटा होता था, इसलिए सारे पशुओं के एक घंटे में दुह लिया जाता था - करीब दस प्रति दूध दुहने वाले। औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ, दूध की आपूर्ति ने वाणिज्यिक उद्योग का रूप ले लिया है, बिल्कुल भिन्न विशिष्ट नस्लों वाले मवेशियों को डेयरी के लिए विकसित किया गया। शुरू में, अधिक लोग दूध दुहने वाले के रूप में कार्यरत हुआ करते थे, लेकिन जल्दी ही मशीनीकरण के साथ यह काम मशीनों से होने लगा ऐतिहासिक रूप से डेयरी फार्मों में, एक ही समय और स्थान पर दूध दुहने और संसाधन करने का काम एक साथ किया जाता है। लोग हाथ से पशुओं को दुहते हैं; फार्म पर इनकी संख्या कम होने की वजह से, अभी भी हाथ से दूध दुहा जाता है। थन को हाथों से पकड़कर दबाने से दूध बाहर आने लगता है, दूध निकालने के लिए इस प्रक्रिया को लगातार दोहराना पड़ता है, थन को उंगलियों और अंगूठे के द्वारा ऊपरी सिरे से दबाते हुए नीचे की ओर लाने से दूध निकलने लगता है। (ऊपरी) भाग में हाथ या उंगलियों की कार्रवाई करने से थन के अंत में दूध वाहिनी खुल जाती हैं और उंगलियों की गतिविधि से वाहिनी में रूका हुआ दूध थन से निकलने लगता है। प्रत्येक बार थन के आधे या चौथाई भाग से दूध वाहिनी की क्षमता को खाली कर लिया जाता है। अनावृत करने की क्रिया को दोनों हाथों का प्रयोग कर तेजी से दोहराना पड़ता है। दोनों ही तरीकों से दूध वाहिनी में अटका हुआ दूध बाहर आने लगता है और (जमीन में बैठकर) घुटनों के बीच एक बाल्टी को टिकाकर दूध दुहने वाले दूध को बाल्टी में इकट्ठा कर लेते हैं, आमतौर पर दूध दहनेवाले एक छोटी स्टूल पर बैठते हैं। परंपरागत रूप से गाय, दूध दुहते समय किसी मैदान या अहाते में खड़ी होती हैं। छोटी गाय, बछिया को भी दूध निकालने के समय स्थिर होकर खड़े रहने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। कई देशों में, गायों को दूध निकालने के समय एक खंभे से बांध दिया जाता है। इस पद्धति के साथ समस्या यह है कि इन शांत, विनयशील जानवरों पर निर्भर करता है, क्योंकि गाय के पीछे के भाग को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।
डेयरी फार्म का कार्य जब बड़ी संख्या में गायों को दुहना जरूरी होता है तब उन्हें शेड या बाड़े में ले आया जाता है जहां उनके (स्टाल) में पुआल खाने की व्यवस्था रहती है और इसी बहाने उनका दूध दुह लिया जाता है। एक व्यक्ति इस तरह से अधिक गायों को दुह सकता है, कुशल कामगार करीब 20 गायों को दुह लेते हैं। लेकिन गाय यार्ड में या शेड में खड़े होकर अपनी दूध दुहने की बारी का इंतज़ार करें यह गायों के लिए अच्छा नहीं होता है, जितना अधिक संभव हो उनका समय घास चरने में गुजरना चाहिए. यह सामान्य रूप से प्रतिबंधित है कि दूध दुहने की क्रिया को दिन भर में दो बार अधिकतम एक घंटे में पूरा कर लेना चाहिए और प्रतिबार आधे घंटे में. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि एक व्यक्ति 10 गायों को दुह रहा है या 1000 गायों को, एक गाय को दुहने के लिए दैनिक तीन घंटे से ज्यादा नहीं लगना चाहिए. जैसा कि पशुओं के झुंड का आकार बड़ा हो तो उसी के अनुपात में वहां मशीन से दुहने की, दूध के भंडारण की सुविधाएं (वैट), थोक दूध के परिवहन की, सफाई क्षमताओं की और गायों को शेड से खलिहानों तक ले जाने और लाने की व्यवस्था होनी चाहिए. किसानों ने पाया कि दूध दुहने के समय पर गायें चराई क्षेत्र को छोड़कर अपने आप दुहने के क्षेत्र में चली जाती हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि दुहने के मौसम में, गायें शायद अधिक दूध के बोझ से लटके हुए थन के कारण असहज महसूस करने लगती हैं और दूध निकल जाने से उन्हें राहत मिलता है इसलिए वह दुहने की जगह पर चली जाती हैं। पशुओं की बड़ी झुंड के साथ पशु के स्वास्थ्य की समस्याएं भी बढ़ जाती हैं। न्यूजीलैंड में इस समस्या में दो तरीकों का इस्तेमाल किया गया है। पहली दवा बेहतर पशु औषधि(और सरकार विनियमन की दवाएं) थीं जिसे किसानों ने इस्तेमाल किया। दूसरी दवापशु चिकित्सा क्लब द्वारा सृजन की गई थी जहां किसानों ने मिलकर एक पशु चिकित्सक को नौकरी पर रख लिया और पूरे साल भर में जब भी आवश्यकता होती वे उसकी सेवाएं प्राप्त करते थे। यह डॉक्टर के ऊपर निर्भर था कि वह पशुओं को स्वस्थ रखे और किसान कम से कम उसे बुलाएं, न कि किसानों को जब भी जरूरत हो उसे बुलाए और सेवा के लिए उसे नियमित रूप से भुगतान करे. अधिकतर डेयरी किसान पूर्ण नियमितता के साथ दिन में दो बार दूध दुहते और कुछ उच्च उत्पादन औषधि का इस्तमाल कर दिनभर में चार बार तक दूध दुह लेते ताकि गायों की थन में जमा हुए दूध का वजन हल्का हो जाए. यह दैनिक गायों को दुहने की दिनचर्या प्रति वर्ष करीब 300 से 320 दिनों के लिए चलती है। कुछ छोटे झुंड को उत्पादन चक्र के अंतिम 20 दिनों के लिए दिन में एक बार दुहा जाता है, लेकिन यह बड़े झुंड के लिए सामान्य नहीं है। यदि एक गाय को नहीं दुहा जाता है तुरंत उसके दूध उत्पादन की क्षमता कम होने लगती है और मौसम के बाकी समय में उसकी उत्पादन क्षमता लगभग सूख जाती है और बिना किसी उत्पादन वह खाती रहती है। हालांकि, दिन में एक बार दूध दुहने का अभ्यास लाभ और जीवन शैली के लिए न्यूजीलैंड में व्यापक रूप से प्रचलित है। यह कारगर साबित हुआ है क्योंकि दूध उपज में गिरावट से कम से कम आंशिक रूप से श्रम और लागत में बचत से सन्तुलन बना रहता है। इसकी तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका में गहन फार्म प्रणालियों से की गई है जहां श्रम लागत कम करने के लिए प्रति दिन तीन बार या उससे अधिक प्रति गाय दूध दुहने का काम होता है। किसान जिन्होंने मानव के खपत के लिए तरल दूध की आपूर्ति का अनुबंध ले रखा है (जैसा कि वो संसाधन कर मक्खन,चीज़ बनाने का विरोध करते हैं और इसलिए - देखें दूध) अक्सर ये उनके झुंड का प्रबंधन करते हैं ताकि ये साल भर दूध देते रहें या आवश्यक न्यूनतम दूध उत्पादन बना रहे. ऐसा गायों के संभोग के द्वारा उनके प्राकृतिक संभोग के समय के बाहर किया जाता है ताकि वे जब झुंड में रहें एक गाय अधिकतम उत्पादन दे और साल भर ये परिक्रमण चलता रहे. उत्तरी गोलार्द्ध के किसान जो गायों को बाड़े में रखते हैं लगभग सभी आमतौर पर साल भर गाय के झुंड का प्रबंधन इस प्रकार करते हैं कि पूरे वर्ष के दौरान निरंतर उत्पादन होता रहे और उन्हें आमदनी होती रहे. दक्षिणी गोलार्द्ध में सहकारी डेयरी प्रणाली दो महीने के लिए उत्पादकता की अनुमति नहीं देती हैं क्योंकि उनकी प्रणाली में वसंत के महीने में कोई उत्पादन नहीं होता और अधिकतम घास का लाभ उठाया जाता है क्योंकि दूध प्रसंस्करण संयंत्र शुष्क मौसम (शीत ऋतु) में बोनस देती है ताकि किसानों को मध्य-शीत तक बिना रूके ले जाया जा सके. इसका यह भी मतलब है कि गाय को दूध के उत्पादन से आराम मिल जाता है, जब वे सबसे अधिक गर्भवती होती हैं। कुछ सालों तक डेयरी फार्मों को अधिक उत्पादन के लिए आर्थिक रूप से दंडित किया जाता रहा है ताकि साल के किसी भी समय में अपने उत्पाद को मौजूदा कीमतों पर बेचने में असमर्थ हो जाते हैं। सभी उच्च उत्पादन वाले झुंड में कृत्रिम गर्भाधान (ए.आई.) आम है।
भारत का दुग्ध उद्योग भारत गांवों में बसता है। हमारी ७२ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण है तथा ६० प्रतिशत लोग कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। करीब ७ करोड़ कृषक परिवार में प्रत्येक दो ग्रामीण घरों में से एक डेरी उद्योग से जुड़े हैं। भारतीय दुग्ध उत्पादन से जुड़े महत्वपूर्ण सांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार देश में ७० प्रतिशत दूध की आपूर्ति छोटे/ सीमांत/ भूमिहीन किसानों से होती है। भारत में कृषि भूमि की अपेक्षा गायों का ज्यादा समानता पूर्वक वितरण है। भारत की ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में डेरी-उद्योग की प्रमुख भूमिका है। देश में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में इसे मान्यता दी गई है। कृषि और डेरी-फार्मिंग के बीच एक परस्पर निर्भरता वाला संबंध है। कृषि उत्पादों से मवेशियों के लिए भोजन और चारा उपलब्ध होता है जबकि मवेशी पोषण सुरक्षा माल उपलब्ध कराने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के दुग्ध उत्पादों दूध, घी, मक्खन, पनीर, संघनित दूध, दूध का पाउडर, दही आदि का उत्पादन करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत का अपना विशेष स्थान है और यह विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक और दुग्ध उत्पादों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। संयोग से भारत विश्व में सबसे कम खर्च पर यानी २७ सेंट प्रति लीटर की दर से दूध का उत्पादन करता है (अमरीका में ६३ सेंट और जापान में २.८)। यदि वर्तमान रूझान जारी रहता है तो मिनरल वाटर उद्योग की तरह दुग्ध प्रोसेसिंग उद्योग में भी बहुत तेजी से विकास होने की पर्याप्त संभावनाएं हैं। अगले १० वर्षों में तिगुनी वृद्धि के साथ भारत विश्व में दुग्ध उत्पादों को तैयार करने वाला अग्रणी देश बन जाएगा।
कार्य प्रगति पर है
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पशु का आवास जितना अधिक स्वच्छ तथा आराम दायक होता है, पशु का स्वस्थ उतना ही अधिक ठीक रहता है जिससे वह अपनी क्षमता के अनुसार उतना ही अधिक दुग्ध उत्पादन करने में सक्षम हो सकता है| अत: दुधारू पशु के लिए साफ सुथरी तथा हवादार पशुशाला का निर्माण आवश्यक है क्योंकि इसके आभाव से पशु दुर्बल हो जाता है और उसे अनेक प्रकार के रोग लग जाते है|एक आदर्श गौशाला बनाने के लिए निम्न लिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
पशु का आवास का स्थान का चयन: गौशाला का स्थान समतल तथा बाकि जगह से कुछ ऊँचा हिना आवश्यक है ताकि वर्ष का पानी,मल-मूत्र तथा नालियों का पानी आदि आसानी से बाहर निकल सके|यदि गहरे स्थान पर गौशाला बनायीजाती है तो इसके चरों ओर पानी तथा गंदगी एकत्रित होती रहती है जिससे गौशाला में बदबू रहती है| गौशाला के स्थान पर सूर्य के प्रकाश का होना भी आवश्यक है| धुप कम से कम तीन तरफ से लगनी चाहिए| गौशाला की लम्बाई उत्तर-दक्षिण दिशा में होने से पूर्व व पश्चिम से सूर्य की रोशनी खिड़कियों व दरवाजों के द्वारा गौशाला में प्रवेश करेगी| सर्दियों में ठंडी व बर्फीली हवाओं से बचाव का ध्यान रखना भी जरूरी है|
स्थान की पहुंच: गौशाला का स्थान पशुपालक के घर के नज़दीक होना चाहिए ताकि वह किसी भी समय आवश्यकता पड़ने पर शीघ्र गौशाला पहुंच सके| व्यापारिक माप पर कार्य करने के लिए गौशाला का सड़क के नज़दीक होना आवश्यक है ताकि दूध ले जाने, दाना, चारा व अन्य सामान लेन-लेजाने में आसानी हो तथा खर्चा भी कम हो|
पशु का आवास का बिजली,पानी की सुविधा: गौशाला के स्थान पर बिजली व पानी की उपलब्धता का भी ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि डेयरी के कार्य के लिए पानी की पर्याप्त मात्रा में जरूर होती है| ईसी प्रकार वर्तमान समय में गौशाला के लिए बिजली का होना भी आवश्यक है क्योंकि रात को रोशनी के लिए तथा गर्मियों में पंखों के लिए इसकी जरूरत होती है|
चारे,श्रम तथा विपणन की सुविधा: गौशाला के स्थान का चयन करते समय चारे की उपलब्धता का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है क्योंकि चारे के बिना दुधारू पशुओं का पालना एक असम्भव कार्य है| हरे चारे के उत्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में सिंचित कृषि योग्य भूमि का होंस भी आवश्यक है| चारे की उपलब्धता के अनुरूप ही दुधारू पशुओं की संख्या रखी जानी चाहिए| पशुओं के कार्य के लिए श्रमिक की उपलब्धता भी उस स्थान पर होनी चाहिए क्योंकि बिना श्रमिक के पड़े पैमाने पर डायरी का कार्य चलना अत्यन्त कठिन होता है| सेरी उत्पादन जैसे दूध,पनीर,खोया आदि के विपणन की सुविधा भी पास में होना आवश्यक है अत: स्थान का चयन करते समय सेरी उत्पाद के विपणन सुविधा को भी ध्यान में रखना आवश्यक है|
पशु का आवास का स्थान का वातावरण: पशुशाला एक साफ उतरे वातावरण में बनानी चाहिए| प्रदूषित वातावरण पशुओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है सिस्से दुग्ध उत्पादन में कमी हो सकती है| पशुशाला के आसपास जंगली जानवरों का प्रकोप नहुत कम अथवा बिल्कुल नहीं हिना चाहिए ताकि इनसे दुधारू पशुओं को खतरा न हो|
दुधारू पशु का आवास आवास सामान्यत: दो प्रकार का होता है:
(क) बंद आवास तथा
(ख) खुला आवास|
(क)बंद आवास:
इस विधि में पशु को बांध कर रखा जाता है तथा उसे उसी स्थान पर दाना-चारा दिया जाता है| पशु का दूध भी उसी स्थान पर निकाला जाता है|इसमें पशु को यदि चरागाह की सुविधा हो तो केवल चराने के लिए ही कुछ समय के लिए खोला जाता है अन्यथा वह एक ही स्थान पर बना रहता है| इस प्रकार के आवास में कम स्थान की आवश्यकता है, पशुओं को अलग-अलग खिलाना, पिलाना संभव है, पशु की बिमारी का आसानी से पता लग जाता है तथा पशु आपस में लदी नहीं कर सकते| उपरोक्त लाभों के साथ-साथ इस विधि में कुछ कमियां भी है जसे कि: आवास निर्माण अधिक खर्चीला होता है, स्थान बढाए बगैर पशुओं की संख्या बढाना मुश्किल होता है, पशुओं को पूरी आज़ादी नहीं मिल पाती तथा मद में आए पशु का पता लगाना थोडा मुश्किल होता है|
(ख)खुला आवास:
इस विधि में पशुओं को एक घीरी हुई चार दीवारों के अन्दर खुला छोड़ दिया जाता है तथा उनके खाने व पीने की व्यवथा उसी में की जाती है| इस आवास को बनाने का खर्च अपेक्षकृत कम होता है| इसमें श्रम की बचत होती है, पशुओं को ज्यादा आराम मिलता है तथा मद में आए पशु का पता आसानी से लगाया जा सकता है| इस विधि की प्रमुख कमियों में: इसमें अधिक स्थान की आवश्यकता पडती है, पशुओं को अलग-अलग खिलाना संभव नहीं है तथा मद में आए पशु दूसरे पशुओं को तंग करते है|
(ग)अर्ध खुला आवास:
अर्ध खुला आवास बंद तथा पूर्ण आवासों की कमियों को दूर करता है| अत: आवास की यह विधि पशु पालकों के लिए अधिक उपयोगी है| इसमें पशु को खिलते, दूध निकलते अथवा इलाज करते समय बाँधा जाता है, बाकी समय में उसे खुला रखा जाता है|इस आवास में हर पशु को 12-14 वर्ग मी. जगह की आवश्यकता होती है जिसमें से4.25व.मी.(3.5 1.2 मी.) ढका हुआ तथा 8.6 व.मी.खुला हुआ रखा जाता है| व्यस्क पशु के लिए चारे की खुरली (नांद) 75 सेमी. छड़ी तथा 40सेमी.गहरी रखी जाती है जिसकी अगली तथा पिछली दीवारें क्रमश:75 व 130सेमी.होती है| खड़े होने से गटर(नाली) की तरफ 2.5-4.0सेमी.होना चाहिए| खड़े होने का फर्श सीमेंट अथवा ईंटों का बनाना चाहिए| गटर 30-40सेमी. चौड़ा तथा 5-7सेमी.गहरा तथा इसके किनारे गोल रखने चाहिए| इसमें हर 1.2सेमी. के लिए 2.5सेमी. ढलान रखना चाहिए| बाहरी दीवारें1.5 मी. ऊँची रखी जानी चाहिए| इस विधि में बछडो-बछडिय तथा ब्याने वाले पशु के लिए अलग से ढके हुए स्थान में रखने की व्यवस्था की जाती है| प्रबंधक के बैठने तथा दाने चारे को रखने के लिए भी ढके हुए भाग में स्थान रखा जाता है| गर्मियों के लिए शैड के चरों तरफ छायादार पेड़ लगाने चाहिए तथा सर्दियों तथा बरसात में पशुओं को ढके हुए भाग में रखना चाहिए| सर्दियों में ठंडी हवा से बचने के लिए बोरे अथवा पोलीथीन के पर्दे लगाए जा सकते हैं|
पशु का आवास से सम्बंधित निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखनी चहिये:
सूखी और उचित तरीके से तैयार जमीन पर शेड का निर्माण किया जाए. जिस स्थान पर पानी जमा होता हो और जहाँ की जमीन दलदली हो या जहाँ भारी बारिश होती हो, वहाँ शेड का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए.
शेड की दीवारें 1.5 से 2 मीटर ऊँची होनी चाहिए. दीवारों को नमी से सुरक्षित रखने के लिए उनपर अच्छी तरह पलस्तर किया जाना चाहिए.शेड की छत 3-4 मीटर ऊँची होनी चाहिए. शेड को पर्याप्त रूप से हवादार होना चाहिए. फर्श को पक्का / सख्त, समतल और ढालुआ (3 से.मी.प्रति मीटर) होना चाहिए तथा उसपर जल-निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि वह सूखा व साफ-सुथरा रह सके.
पशुओं के खड़े होने के स्थान के पीछे 0.25 मीटर चौड़ी पक्की नाली होनी चाहिए. प्रत्येक पशु के खड़े होने के लिए 2 X 1.05 मीटर का स्थान आवश्यक है. नाँद के लिए 1.05 मीटर की जगह होनी चाहिए. नाँद की ऊँचाई 0.5 मीटर और गहराई 0.25 मीटर होनी चाहिए.
नाँद, आहार-पात्र, नाली और दीवारों के कोनों को गोलाकार किया जाना चाहिए, ताकि उनकी साफ-सफाई आसानी से हो सके. प्रत्येक पशु के लिए 5-10 वर्गमीटर का आहार-स्थान होना चाहिए.
गर्मियों में छायादार जगह / आवरण और शीतल पेयजल उपलब्ध कराया जाना चाहिए.जाड़े के मौसम में पशुओं को रात्रिकाल और बारिश के दौरान अंदर रखा जाना चाहिए. प्रत्येक पशु के लिए हर रोज़ बिछावन उपलब्ध कराया जाना चाहिए. शेड और उसके आसपास स्वच्छता रखी जानी चाहिए.
दड़बों और शेड में मैलाथियन अथवा कॉपर सल्फेट के घोल का छिड़काव कर बाहरी परजीवियों, जैसे – चिचड़ी, मक्खियों, आदि को नियंत्रित किया जाना चाहिए.
पशुओं के मूत्र को बहाकर गड्ढे में एकत्र किया जाना चाहिए और तत्पश्चात् उसे नालियों / नहरों के माध्यम से खेत में ले जाना चाहिए. गोबर और मूत्र का उपयोग उचित तरीके से किया जाना चाहिए. गोबर गैस संयंत्र की स्थापना आदर्श उपाय है. जहाँ गोबर गैस संयंत्र स्थापित न किए गए हों, वहाँ गोबर को पशुओं के बिछावन एवं अन्य अवशिष्ट पदार्थों के साथ मिलाकर कम्पोस्ट तैयार किया जाना चाहिए.
डेरी व्यवसाय में लाभ मुख्यत: तीन कारकों जैसे पशु की नस्ल, पशु प्रबंधन एवं पशु पोषण पर निर्भर करता है। दुधारू पशुओं की विकास दर एवं उत्पादकता वृद्धि में पशु पोषण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उपयुक्त आहार यह सुनिश्चित करता है कि पशु अपना वांछित शारीरिक वजन पा ले, अधिक दूध उत्पादन करे तथा स्वस्थ रहेI दुधारू पशुओं पर होने वाले कुल खर्च में से 70 प्रतिशत भाग अकेले उसके आहार पर होता है, जिससे उसका महत्व और भी बढ़ जाता है।
किसान अपने पारंपरिक ज्ञान के आधार पर, जो उन्हें पीढी दर पीढी ज्ञात हुआ है तथा स्थानीय क्षेत्र में उपलब्ध एक या दो खाद्य पदार्थ जैसे कि चोकर, खल, चूनी, अनाज के दाने आदि और मौसम के हिसाब से हरा चारा तथा फसल अवशेष/ भूसा अपने पशुओं को खिलाते रहते हैं। बहुत कम किसान अपने पशुओं को रोजाना खनिज मिश्रण खिलाते हैं, जो खिलाते भी हैं वो 25 से 50 ग्राम ही देते हैंI पशुओं को दिए जाने वाले चारे तथा आहार की मात्रा ज्यादातर उनकी आवश्यकताओं से कम या अधिक होती है तथा उनके आहार में प्रोटीन, ऊर्जा या खनिज का असंतुलन हो जाता है। असंतुलित आहार से पशु दूध कम देता है, उत्पादन लागत अधिक रहती है तथा पशु का स्वास्थ्य और प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है। इसलिए, किसानों को दुधारू पशुओं के आहार संतुलन पर शिक्षित करना अत्यंत आवश्यक है।
• आमतौर पर, ताजे ब्यांत और अधिक दूध देने वाले पशुओं के आहार में उर्जा की कमी पाई जाती है। पशु के कम खाने एवं दूध उत्पादन बढने से इस उर्जा का अभाव और अधिक बढ़ जाता है। ऐसा देखा गया है, कि ब्यांत के बाद पशुओं में 80 से 100 किलो के आसपास शरीर का वजन कम होना आम बात है। ऐसे कमजोर पशु तब तक गर्मी में नहीं आ पाते हैं जब तक की वो अपना ब्यांत के बाद कम हुआ शारीरिक वजन पूरा या आंशिक रूप से वापस नहीं पा लेते । इस वजह से पशुओं में गाभिन होने में देरी होती है और दो ब्यांतों के बीच का अन्तराल लंबा हो जाता है। इसके अतिरिक्त, पशु इस अवधि के दौरान दूध भी कम देते हैं, तथा पूरे ब्यांतकाल का दुग्ध उत्पादन भी कम हो जाता है। ज्यादा दुग्ध उत्पादन होने पर, किसान अपने पशुओं को आमतौर पर तेल या घी पिलाते हैं। परंतु यह किफायती नहीं है, और रूमेन में रेशे की पाचाकता भी कम हो जाती है। अधिक दूध देने वाले, गाभिन एवं नए ब्याए पशुओं को बायपास फैट खिलाने से ऊर्जा की कमी को कम किया जा सकता है। और इससे दूध उत्पादन और प्रजनन क्षमता में सुधार लाने में मदद मिलती है। बायपास फैट का उपयोग दूध देने वाले पशुओं के आहार में प्रजनन से 10 दिन पहले और 90 दिनों बाद तक किया जा सकता है। यह दुधारू पशुओं के आहार में 15 से 20 ग्राम प्रति किलो दूध उत्पादन अथवा प्रतिदिन 100 से 150 ग्राम प्रति पशु के हिसाब से शामिल किया जा सकता है। बाईपास फैट खिलाने से फाइबर (रेशा) पाचन में बाधा नहीं होती और घी / तेल पिलाने के बजाय यह ज्यादा फायदेमंद होता है।
• दुग्ध उत्पादक पशुओं के पेट में चार कंपार्टमेंट होते हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण 'रुमेन' है, जहाँ चारा और भूसे का अधिकांश किण्वीकरण होता है। जब हम इन पशुओं को प्रोटीन की खली / मील देते हैं, तब रुमेन मे जीवाणुओं द्वारा प्रोटीन का अधिकांश भाग (60-70%) अमोनिया मे परिवर्तित हो जाता है। इस अमोनिया का अधिकांश हिस्सा यूरिया के रूप में मूत्र के माध्यम से उत्सर्जित हो जाता है। इस प्रकार खली का एक महत्वपूर्ण भाग जो पशु आहार का सबसे अधिक महंगा हिस्सा होता है, बर्बाद हो जाता है। यदि हम इन प्रोटीन की खलियों को उपयुक्त रासायनिक उपचार करें तो, रूमेन में इनका किण्वन कम किया जा सकता है। यह प्रक्रिया/ उपचार, जो रूमेन मे खली के प्रोटीन का किण्वन होने से रक्षा करते हैं, इस तकनीक को बाईपास प्रोटीन तकनीक कहते हैं। संरक्षित खलियों / मील जिसका छोटी आंत में अधिक कुशलता से पाचन हो जाता है और परिणाम स्वरुप दूध उत्पादन के लिए अतिरिक्त प्रोटीन उपलब्ध हो जाती है। यह अच्छी गुणवत्ता के साथ अधिक दूध का उत्पादन करने के लिए पशुओं को मदद करता है।
मिश्रित पशु आहार विभिन्न खाद्य सामग्रियों को उपयुक्त अनुपात में मिलाकर बनाया गया एक मिश्रण है| मिश्रित पशु आहार मुख्यतः अनाज, चोकर, खलियाँ, दाल चुनियाँ, कृषि औधोगिक सह उत्पादों, खनिज पदार्थों और विटामिनों से मिलकर बनता है| यह पशुओं को जरुरी पोषक तत्व उपलब्ध कराने का सस्ता स्रोत है, यह चूरी, गोलियाँ, मुरमुरा या घनाकार आदि के रूप में होता है| मिश्रित पशु आहार बढ़ते बछड़ों/ बछियों के लिए, वयस्क पशुओं के लिए, सूखे, दुधारू एवं गाभिन पशुओं के लिए संतुलित तथा स्वादिष्ट पोषक आहार का काम करता है| इसे निर्धारित मात्रा में नियमित प्रयोग करने से दुग्ध उत्पादन की लागत को कम किया जा सकता है एवं किसानों की शुद्ध आय को बढ़ाया जा सकता है| मिश्रित पशु आहार की मात्रा निम्नप्रकार से तय की जा सकती है:
मिश्रित पशु आहार | गायों के लिए (400 किलोग्राम शारीरिक भार) | भैंसों के लिए (500 किलोग्राम शारीरिक भार) |
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भरण पोषण के लिए | 1.5 - 2.0 कि.ग्रा | 2.0 - 2.5 कि.ग्रा |
दुग्ध उत्पादन के लिए (प्रति लीटर) | 400 ग्राम | 500 ग्राम |
गर्भावस्था के लिए | 2.0 कि.ग्रा.(अंतिम दो महीनो में ) | 2.0 – 2.5 कि.ग्रा.(अंतिम दो महीनो में) |
यूरिया मोलासिस मिनरल ब्लॉक, यूरिया, मोलासिस, खनिज मिश्रण और अन्य सामग्री के उपयुक्त अनुपात में मिश्रण के द्वारा तैयार किया जाता है। यह दुधारू पशुओं के लिए ऊर्जा, प्रोटीन और खनिज तत्वों को आसानी से उपलब्ध कराने का बेहतर स्रोत है। यूरिया मोलासिस मिनरल ब्लॉक पशुओं को खिलाने से उनको भरपूर मात्रा में पोषक तत्व तो मिलते ही हैं, साथ में यूरिया के धीमी गति से अंतर्ग्रहण से जैव प्रोटीन का ज्यादा मात्रा में उत्पादन होता है जिससे पाचन क्रिया बेहतर हो जाती है| हरे चारे की कम उपलब्धता वाले क्षेत्रों में यूरिया मोलासिस मिनरल ब्लॉक बहुत ही उपयोगी है|
अवधि | कोलोस्ट्रम (खीस)/ दूध (कि.ग्रा. प्रतिदिन) | बछड़ों/ बछियों का दाना (कि.ग्रा. प्रतिदिन) | अच्छी गुणवत्ता वाली सुखी घास (हे) * (कि.ग्रा. प्रतिदिन) | हरा चारा*(कि.ग्रा. प्रतिदिन) |
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0-2 दिन | 1.5-2.0 [कोलोस्ट्रम (खीस)] | -- | -- | -- |
3-4 दिन | 1.5-2.0 (दूध) | -- | -- | -- |
4-14 दिन | 1.0-1.5 (दूध) | 0.10 | 0.10 | -- |
तीसरा सप्ताह | 0.5-1.0 (दूध) | 0.20 | 0.15 | 0.75 |
चौथा सप्ताह | दूध (0.5 कि.ग्रा.) या दूध प्रतिस्थापक(0.25 कि.ग्रा.) दे सकते हैं, यदि किसान के पास उपलब्ध है तो | 0.25 | 0.20 | 1.25 |
पाचवां सप्ताह | -- | 0.40 | 0.30 | 2.0 |
छठा सप्ताह | -- | 0.50 | 0.40 | 2.5 |
सातवां सप्ताह | -- | 0.60 | 0.60 | 3.0 |
आठंवा सप्ताह | -- | 0.70 | 0.80 | 3.5 |
नोवां सप्ताह | -- | 0.80 | 0.90 | 4.0 |
दसवा-ग्यारवा सप्ताह | -- | 1.0 | 0.90 | 5.0 |
बारहवाँ सप्ताह | -- | 1.20 | 1.00 | 5.0 |
तेरहवाँ-सोलहवाँ सप्ताह | -- | 1.50 | 1.20 | 6.0 |
सत्रह-बीस सप्ताह | -- | 1.75 | 1.50 | 7.5 |
इक्कीस-छब्बीस सप्ताह | -- | 2.00 | 2.00 | 8.0 |
किसी भी डेरी फार्म की सफलता उसके बछड़ों/ बछियों के उचित प्रबंधन पर निर्भर करती है| बछड़ों/ बछियों के प्रारंभिक जीवन में बेहतर पोषण उनके तेजी से विकास और जल्दी परिपक्वता के लिए अच्छा होता है | अपने यौवन के समय परिपक्व शरीर के वजन का 70-75 प्रतिशत पाने के लिए उन्हें सावधानी से पाला जाना चाहिए। छोटे बछड़ों/ बछियों के अनुप्युक्त पोषण के कारण पहले ब्यांत में अधिक उम्र और पूरे जीवन काल की उत्पादकता में कमी हो जाती है|
पशुओं की उत्पादन क्षमता उनको दिए जाने वाले आहार पर निर्भर करती है। पशुओं को संतुलित आहार दिया जाय तो पशुओं की उत्पादन क्षमता को निश्चित ही बढ़ाया जा सकता है। हरे चारेके प्रयोग से पशुओं को आवश्यकतानुसार शरीर को विटामिन ’ए’ एवं अन्य विटामिन मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पशुपालक को अपने पशुधन से उचित उत्पादन लेने के लिए वर्ष पर्यन्त हरा चाराखिलाने का प्रबन्ध अवश्य करना चाहिए। पशुओं से अधिक दुग्ध उत्पादन लेने के लिए किसान भाईयों को चाहिए कि वे ऐसी बहुवर्षीय हरे चारे की फसले उगाऐं जिनसे पशुओं को दलहनी एवं गैरदलहनी चारा वर्ष भर उलब्ध हो सकें। रबी एवं खरीफ के लिए पौष्टिक हरा चारा उगाने की योजना कृषकों को अवश्य बनानी चाहिए। खरीफ एवं रबी के कुछ पौष्टिक हरे चारे उगाने की विधि इस प्रकार हैंः
इसका चारा अत्यन्त पौष्टिक है जिसमें 17 से 18 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है। कैल्शियम तथा फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में होता है। यह अकेले अथवा गैल दलहनी फसलों जैसे ज्वार या मक्का के साथ बोई जाती है। भूमि व भूमि की तैयारीः इसकी खेती दोमट या बलुई और हल्की काली मिट्टी में की जाती है। भूमि का जल निकास अच्छ होना चाहिए। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताईयां देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। लोबिया की उन्नत किस्मेंः रशियन जायन्ट, एच.एफ.सी.-42-1, यू.पी.सी.-5286, 5287, यू.पी.सी.-287, एन.पी.-3, बुन्देल लोबिया (आई.एम.सी.-8503), सी.-20, सी.-30.-558)। बीज उपचार: 2.5 ग्राम थीरम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचारित करें। बुआई का समय: वर्षा प्रारम्भ होने पर जून-जुलाई के महीने में इसकी बुआई करनी चाहिए। बीज की दर: अकेले बोने के लिए 40 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। मक्का या जवार के साथ मिलाकर बुआई के लिए 15-20 कि.ग्रा. बीज प्रयोग करना चाहिए। उर्वरक: बुआई के समय 25-30 कि.ग्रा. नत्राजन तथा 30-40 क्रि.ग्रा. फास्फोरस, 15-20 कि.ग्रा. पोटाश देने के लिए इफको एन. पी.के. 120 कि.ग्रा. एवं 35 कि.ग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। उपज: 250-300 कुन्तल हरे चारे की उपज प्राप्त होती है। 2. ज्वार चारा फसल उगाने की तकनीक ज्वार खरीफ में चारे की मुख्य फसल है। उन्नत प्रजातियों में 7-9 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है। भूमि: दोमट, बलुई दोमट तथा हल्की और औसत काली मिट्टी जिसका जल निकास अच्छा हो, ज्वार की खेती के लिए अच्छी है। ज्वािर की उन्नत किस्में: मीठी ज्वार (रियो): पी.सी.-6, पी.सी.-9, यू.पी. चरी 1 व 2, पन्त चरी-3, एच.-4, एख्.सी.-308, हरियाणवी चरी-171, आई.जी.एफ.आर.आई.एम.-452, एस.-427, आर. आई.-212, एफ.एस.-277, एच.सी.--136 बहु कटान वाली ज्वार प्रजातियां: एम.पी. चरी एवं पूसा चरी-23, एस.एस.जी.-5937 (मीठी सुडान), एम.एफ.एस.एच.-3, पायनियर-998 इन्हें अधिक कटाई के लिए ज्वार की सबसे अच्छी किस्म माना गया है। इनमें 5-6 प्रतिशत प्रोटीन होती है तथा ज्वार में पाया जाने वाला विष हाइड्रोसायनिक अम्ल कम होता है। बुआई का समय: जून/जुलाई में बुआई करना ठीक है। बीज की दर: छोटे बीजों वाली किस्मों में बीज 25-30 कि.ग्रा. तथा दूसरी प्रजातियों का 40-50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखना चाहिए। लोबिया के साथ 2:1 के अनुपात में बोना चाहिए। उर्वरक: उन्नत किस्मों में 80-100 कि.ग्रा. नत्राजन, 40-50 कि.ग्रा. फास्फेट, 20-25 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इसके लिए एन.पी.के. 12:32:16 देशी जातियों के लिए 65 कि.ग्रा. एवं उन्नत किस्मों के लिए 100-120 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बुआई से पहले प्रयोग करें। यूरिया खड़ी फसल में देशी जातियों में 70 कि.ग्रा. एवं संकर जातियों में 140 कि.ग्रा. देा बार में आवश्यकतानुसार प्रति हेक्टेयर दें। कटाई: फसल चारे के लिए 60-70 दिनों में कटाई योग्य हो जाती है।
3. मक्का की चारा फसल मक्काा की उन्नत किस्में: प्रायः दाने वाली प्रजातियां ही चारे के काम में लाई जाती हैं। मक्का में किसान, अफ्रीकन टाल एवं विजय, देशी में टाइप-41 मुख्य किस्में हैं। संकर मक्का गंगा-2, गंगा-7, चारे के लिए ल सकते हैं। बुआई का समय: जून या जुलाई पहली वर्षा होने पर इसकी बुआई करनी चाहिए। बीज दर: 50- 60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज शुद्ध फसल की बुआई के लिए पर्याप्त होता है। फलीदार चारे जैसे लोबिया के साथा 2:1 के साथ मिलाकर बोना चाहिए। उर्वरक: संकर तथा संकुल किस्मों में 120 कि.ग्रा. तथा देशाी प्रजातियों में 80 कि.ग्रा. नत्राजन एवं 60 कि.ग्रा. फास्फेट, 60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इसके लिए एन.पी.के. 12:32:16 देशी जातियों में 100 कि.ग्रा. एवं संकर/संकुल प्रजातियों में 190 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर दे सकते हैं। यूरिया देशी जातियों में 150 कि.ग्रा. एवं संकर- संकुल प्रजातियों 215 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से दो बार में आवश्यकतानुसार दे सकते है। बीज की दर: शुद्ध चारे की फसल के लिए 50-60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर एवं फलीदार लोबिया के साथ 3:1 के अनुपात में बुआई कर सकते हैं। कटाई: 65-75 दिन बाद कटाई की जा सकती है। 4. ग्वार के हरे चारे की फसल उगाने की विधि ग्वार शुष्क क्षेत्रों के लिए पौष्टिक एवं फलीदार चारे की फसल है। इसे प्रायः ज्वार एवं बाजरे के साथ मिलाकर बो सकते हैं। गवार की उन्नत किस्में: टाइप-2, एफ.ओ.एस.-277 एवं एच.एफ.सी.-119, एच.एफ.सी.-156, बुन्देल ग्वार-1, आई.जी.आर.आई.-212-9, बुन्देल ग्वार-2 बुआई का समय: प्रथम मानसून के बाद जून या जुलाई बुआई का उपयुक्त समय है। बीज दर: शुद्ध फसल के लिए 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर मिलवां फसल के लिए 15-16 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर रखी जाती है। उर्वरक: 120 कि.ग्रा. एन.पी.के. 12:32:16 प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय प्रयोग करने पर फसल अच्छी होती है। उपज: हरे चारे की औसत उपज 150-225 कुन्तल प्रति हेक्टेयर मिलती है। 5. बाजरे की चारा फसल बाजरा की उन्नत प्रजातिया: संकर में पूसा-322, पूसा-23, संकुल में राज-171, डबलू.सी.सी.-75 चारे के लिए उपयुक्त हैं। बीज दर: शुद्व फसल के लिए 10-12 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होता है। मिलवां फसल में 2ः1 अनुपात में बाजरा तथा लोबिया की बुआइ्र की जाती है। उर्वरक: 100 कि.ग्रा. नत्राजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 50 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग रना चाहिए। इसके लिए 100-120 कि.ग्रा. इफको एन.पी.के. दे सकते हैं। बुआई के समय, 175 कि.ग्रा. यूरिया प्रथम तथा द्वितीय कटाई के लिए दें। सिंचाई: प्रायः वर्षाकाल में बोई गई फसलों की सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है। उपज: हरे चारे की औसत उपज 400-500 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है। 6. जई चारा फसल उगाने की विधि जई एक पौष्टिक चारा हो जो कि सभी वर्गों के पशुओं को अधिक मात्रा में खिलाया जाता है। प्रोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए इसको वरसीम अथवा रिजका के साथ 1:1 अथवा 2:1 के अनुपात में खिलाना चाहिए। जई की प्रजातियां: परीक्षणों के आधार पर चारे के लिए सबसे अच्छी प्रजाति कैन्ट (यू.पी.ओ.-94), यू.पी.ओ.-212, ओ.एस.-6, जे.एच.ओ.-822, जे.एच.ओ.-851 है। बीज दर: 100-120 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर।
बुआई का समय: अक्टूबर के प्रथम पखवारे में नवम्बर तक बोया जाना चाहिए। उर्वरक: उर्वरक 80:40:30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए 125 कि.ग्रा. एन.पी.के. 12:32:16 तथा 140 कि.ग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। यूरिया को प्रथम एवं द्वितीय कटाई के बाद डालें। कटाई: 50-55 दिन बाद पहली कटाई ले लेनी चाहिए, फिर माह के बाद कटाई लेना उपयुक्त है। पौधों की कटाई 8-10 से.मी. की ऊॅचाई पर से करें, जिससे पौधों की पुनः वृद्धि अच्छी हो। बीज की अच्छी उपज लेने के लिए फसल की पहली कटाई के बाद बीज के लिए छोड़ देना चाहिए। उपज: फसल की दो कटाई करने से 50 टन हरा चारा प्राप्त होता है। फसल बीज लेने के लिए पहली कटाई के बाद छोड़ी गई है तो लगभग 25 टन हरा चारा, 15-20 कुन्तल बीज और 20-25 कुन्तल भूसा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है। 7. बरसीम चारा फसल का उत्पा दन बरसीम चारे की बुआई अक्टूबर के पहले पखवारे में करने से पशुओं को हरा चारा दिसम्बर से मई तक मिलता रहता है। वरसीम मक्का, धान, ज्वार या बाजरा के बाद आसानी से बोई जा सकती है। खेती की तैयारी: बरसीम की खेती सभी भूमियों में की जाती है, परन्तु सामान्यतः भारी दोमट मिट्टी जिसकी जलधारण क्षमता अधिक होती है। इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। धान के खेत प्रायः वरसीम की बुआई के लिए ठीक रहते हैं। भूमि का पी.एच. मान 6.0 या इससे अधिक होना चाहिए। दो-तीन बार हैरो चलाकर खेती की मिट्टी भुरभुरी कर लेना चाहिए। खेत का समतल होना वरसीम की खेती के लिए अनिवार्य है। बोने से पहले छोटी-छोटी क्यारियां बनाना चाहिए। क्यारी की लम्बाई अधिक चैड़ाई 4-5 मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए। बरसीम की प्रजातियां: बरसीम की वरदान जे.वी.-1 तथा वी.एल.-1, वी.एल.-10, जे.एच.वी.-146 प्रमुख प्रजातियां हैं। बीज दर एवं बीजोपचार: 25-30 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता प्रति हेक्टेयर होती है। यदि 1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर चारे वाली सरसों मिलकार बुआई की जाय तो पहली कटाई में अच्छी मात्रा में चारा प्राप्त किया जा सकता है। प्रायः वरसीम के बीज के साथ कासनी का बीज मिला रहता है। अच्छे बीज उत्पादन के लिए यह आवश्यक है कि शुद्ध बीज बोया जाय। यदि कासनी से मिश्रित बीज को 5-10 प्रतिशत नमक मिले घोल में डाला जाए तो कासनी के बीज पानी में तैरने लगते हैं और उन्हें सरलता से प्रथक किया जा सकता है। यदि किसी खेत में पहली बार वरसीम बोई जा रही है तो बोने से पूर्व वरसीम कल्चर द्वारा बीज का उपचार करना अति आवश्यक है। उर्वरक: 30 कि.ग्रा. नत्राजन एवं 80 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से 175कि.ग्रा. डी.ए.पी. एवं पहली, दूसरी तथा तीसरी कटाई के बाद 100 कि.ग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। कटाई: प्रथम कटाई 50-55 दिन बाद करना फिर 30 दिन के अन्तर पर कटाई की जा सकती है। इस प्रकार 4-5 कटाई की जा सकती हैं।
दूध की अपनी रोजाना की जरूरतें पूरा करने के लिए गोवा पड़ोसी राज्यों पर निर्भर है, क्योंकि गोवा में दूध का उत्पादन इसकी रोजाना की जरूरत का एक तिहाई ही हो पाता है। दरअसल, प्रदेश के डेयरी व्यवसाय में सबसे बड़ी समस्या चारे की है। राज्य के 80 प्रतिशत किसानों के पास एक हैक्टर से भी कम जमीन है। ऐसी स्थिति में चारागाह के लिए भूमि ही नहीं बचती है। इसके अलावा मृदा लवणता, बाड़ लगाने में उच्च लागत और महंगे मानव श्रम के कारण भी राज्य में चारा की कीमत ज्यादा है। यहां कन्सन्ट्रेट चारा, हरा चारा और सूखा चारा की वार्षिक मांग क्रमशः 1.23, 10.08 और 1.67 लाख टन है लेकिन उत्पादन इसकी तुलना में काफी कम है। कन्सन्ट्रेट चारा, हरा चारा और सूखा चारा की कीमत क्रमशः 15, 5 और 10 रुपये प्रति किलोग्राम है।
किसानों की इस समस्या को देखते हुए भारत सरकार की राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत गोवा डेयरी की ओर से आईसीएआर अनुसंधान परिसर, पुराना गोवा में हाईड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा उत्पादन इकाई की स्थापना की गई है। हाईड्रोपोनिक्स एक ऐसी तकनीक है, जिसमें फसलों को बिना खेत में लगाए केवल पानी और पोषक तत्वों से उगाया जाता है। ऐसी ही 10 और इकाइयां गोवा की विभिन्न डेयरी कोऑपरेटिव सोसायटियों में लगाई गई हैं। प्रत्येक इकाई की रोजाना 600 किलोग्राम हरा चारा उत्पादन की क्षमता है। आईसीएआर अनुसंधान परिसर हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा के उत्पादन और इसके मानकीकरण के साथ ही किसानों को इस संबंध में तकनीकी परामर्श भी उपलब्ध करा रहा है।
यह चारा मक्के से उगाया जाता है। इसके लिए 1.25 किलोग्राम मक्के के बीज को चार घंटे पानी में भिगोया जाता है फिर उसे 90X32 सेमी की ट्रे में रख दिया जाता है। एक हफ्ते में यह हरा चारा तैयार हो जाता है। ट्रे से निकालने पर यह चारा जड़, तना और पौधे वाले मैट की तरह दिखता है। एक किलोग्राम पीला मक्का (CT-818) से 3.5 किलोग्राम और एक किलोग्राम सफेद मक्का (GM-4) से 5.5 किलोग्राम हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा तैयार होता है। सफेद मक्के से तैयार किए गये हाइड्रोपोनिक्स चारे की उत्पादन लागत चार रुपए प्रति किलोग्राम जबकि पीला मक्का से तैयार करने पर उत्पादन लागत पांच रुपए प्रति किलोग्राम आती है। परंपरागत हरा चारा में क्रूड प्रोटीन 10.7 प्रतिशत होती है जबकि हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा में क्रूड प्रोटीन 13.6 प्रतिशत होती है। परंपरागत हरा चारा में क्रूड फाइबर 25.9 प्रतिशत जबकि हाइड्रोफोनिक्स हरा चारा में क्रूड फाइबर 14.1 प्रतिशत ही होता है। एक डेयरी मवेशी के लिए एक दिन में 24 किलो हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा पर्याप्त है। हरा चारा डेयरी मवेशियों के लिए अनिवार्य है। हालांकि जहां पर इसकी उपलब्ध्ता न हो वहां हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा का उत्पादन किसान कर सकते हैं। इससे दूध उत्पादन भी बढ़ता है
भारत समृद्ध जैव-विविधता युक्ता बड़ी देशी गोजातीय आबादी वाला देश है । यहां गाय की 40 तथा भैंसों की 13 भली भांति परिभाषित नस्ले हैं । कठोर जलवायु परिस्थियो में अपने अनुकूलन के कारण जीवित रहना, खराब गुड़वक्ता वाले आहार एवं चारे पर उत्पा दन की योग्याता, रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता इत्यारदि गुणों के कारण कई पीढि़यों में इन नस्लोंह का विकास हुआ है ।
इस प्रकार की नस्लों की संख्याक में कमी का प्रमुख कारण इनको उत्पानदकता में कमी आना है जो कि किसानों के लिए लाभकर नहीं स्थिति है । इसलिए इसका समाधान दूध उत्पा दकता के लिए इन नस्लोंस की आनुवंशिक क्षमता में वृद्धि करने में निहित है । इस दिशा में व्यूवस्थित प्रयासों से न केवल इन नस्लों की उत्पाकदकता बढ़ेगी बल्कि इससे उनकी पुन: हानि को भी रोका जा सकेगा ।
विकास एवं संरक्षण के दोहरे उददेश्यों के साथ्, एनडीडीबी ने चुनी हुई देशी नस्लों की आनुवंशिक योग्यदता में वृद्धि संबंधी कार्यक्रमों की शुरूआत की है । इनके द्वारा गाय-भैंसों की हमारी देसी नस्लोंई की उत्पालदकता में वृद्धि होने की संभावना है ।
क्रम सं.. | नस्ल | गृह क्षेत्र |
---|---|---|
1 | अमृत महल | कर्नाटक |
2 | बाचौर | बिहार |
3 | बरगुर | तमिलनाडु |
4 | डांगी | महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश |
5 | दियोनी | महाराष्ट्र तथा कर्नाटक |
6 | गोलो | महाराष्ट्रग तथा मध्य प्रदेश |
7 | गिर | गुजरात |
8 | हालीकर | महाराष्ट्र तथा कर्नाटक |
9 | हरियाना | हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान |
10 | कंगायम | तमिलनाडु |
11 | कांकरेज | गुजरात तथा राजस्था।न |
12 | केनकथा | उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश |
13 | खेरीगढ़ | उत्तर प्रदेश |
14 | मालवी | मध्य प्रदेश |
15 | खिल्लार | महाराष्ट्र तथा कर्नाटक |
16 | कृष्णा वैली | कर्नाटक |
17 | मेवाती | राजस्थान, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश |
18 | नागोरी | कर्नाटक |
19 | निमाड़ी | मध्य प्रदेश |
20 | ओंगोल | आंध्र प्रदेश |
21 | पोनवार | उत्तर प्रदेश |
22 | पुंगानूर | आंध्र प्रदेश |
23 | राठी | राजस्थान |
24 | रेड कंधारी | महाराष्ट्र |
25 | रेड सिंधी | केवल संगठित फार्मों पर |
26 | साहिवाल | पंजाब तथा राजस्थान |
27 | सिरी | सिक्किम तथा पश्चिम बंगाल |
28 | थारपारकर | राजस्थान |
29 | अंबल्येचरी | तमिलनाडु |
30 | वेचूर | केरल |
31 | मोटू | उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तथा आंध्र प्रदेश |
32 | घुमुसारी | उड़ीसा |
33 | बिंझारपुरी | उड़ीसा |
34 | खारीयार | उड़ीसा |
35 | पुलीकुलम | तमिलनाडु |
36 | कोसाली | छत्तीसगढ़ |
37 | मलनाड गिद्दा | कर्नाटक |
38 | बेलाही | हरियाणा तथा चंड़ीगढ़ |
39 | गंगा तिरी | उत्तर प्रदेश तथा बिहार |
क्रम सं.. | नस्ल | गृह क्षेत्र |
---|---|---|
1 | भदावरी | उत्तंर प्रदेश तथा मध्यन प्रदेश |
2 | जाफराबादी | गुजरात |
3 | मराठवाड़ी | महाराष्ट्री |
4 | महेसाना | गुजरात |
5 | मुर्रा | हरियाणा |
6 | नागपुरी | महाराष्ट्री |
7 | नीली रावी | पंजाब |
8 | पंधरपुरी | महाराष्ट्र |
9 | सुर्ती | गुजरात |
10 | टोडा | तमिलनाडु |
11 | बन्नी | गुजरात |
12 | चिलिका | ओडिशा |
13 | कालाहांडी | ओडिशा |
दुधारू पशुओं में अनेक कारणों से बहुत सी बीमारियाँ होती है| सूक्ष्म विषाणु, जीवाणु, फफूंदी, अंत: व ब्रह्मा परजीवी, प्रोटोजोआ, कुपोषण तथा शरीर के अंदर की चयापचय (मेटाबोलिज्म) क्रिया में विकार आदि प्रमुख कारणों में है| इन बीमारियों में बहुत सी जानलेवा बीमारियां है था कई बीमारियाँ पशु के उत्पादन पर कुप्रभाव डालती है| कुछ बीमारियाँ एक पशु से दूसरे पशु को लग जाती हैजैसे मुह व खुर की बीमारी, गल घोंटू, आदि, छूतदार रोग कहते हैं| कुछ बीमारियाँ पशुओं से मनुष्यों में भी आ जाती है जैसे रेबीज़ (हल्क जाना), क्षय रोग आदि, इन्हें जुनोटिक रोग कहते हैं| अत: पशु पालक को प्रमुख बीमारियों के बारे में जानकारी रखना आवश्यक है ताकि वह उचित समय पर उचित कदम उठा कर अपना आर्थिक हानि से बचाव तथा मानव स्वास्थ्य की रक्षा में भी सहयोग कर सके| दुधारू पशुओं के प्रमुख रोग् निम्नलिखित है:
सूक्ष्म विषाणु (वायरस) से पैदा होने वाली बीमारी को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है जैसेकि खरेडू,मुहं पका खुर पका, चपका,खुरपा आदि| यह बहुत तेज़ी फैलाने वाला छुतदार रोग है जोकि गाय, भैंस, भेड़, ब्क्रिम ऊंट, सुअर आदि पशुओं में हित है| विदेशी व संकर नस्ल रोग की गायों में यह बीमारी अधिक गम्भीर रूप से पायी जाती है| यह बीमारी हमारे देश में हर स्थान में होती है| इस रोग से ग्रस्त पशु ठीक होकर अत्यन्त कमज़ोर हो जाते हैं| दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत कम हो जाता है तथा बैल काफी समय तक कं करने योग्य नहीं रहते| शरीर पर बालों का कवर खुरदरा था खुर हरूप हो जाते हैं|
रोग का कारण:-मुंहपका-खुरपका रोग एक अत्यन्त सुक्ष्ण विषाणु जिसके अनेक प्रकार तथा उप-प्रकार है, से होता है| इनकी प्रमुख किस्मों में ओ,ए,सी,एशिया-1,एशिया-2,एशिया-3, सैट-1, सैट-3 तथा इनकी 14 उप-किस्में शामिल है| हमारे देश मे यह रोग मुख्यत: ओ,ए,सी तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है| नम-वातावरण, पशु की आन्तरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं|
संक्रमण विधि:- यह रोग बीमार पशु के सीधे सम्पर्क में आने, पानी, घास, दाना, बर्तन, दूध निकलने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से तथा लोगों के आवागमन से फैलता है| रोग के विषाणु बिमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं| ये खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर चार महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मीं के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं| विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं तथा लगभग 5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं|
रोग के लक्षण :- रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डि. फारेनहायट तक बुखार हो जाता है| वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है|दूध का उत्पादन गिर जाता है| मुंह से लार बहने लगती है तथा मुंह हिलाने पर चप-चप की आवाज़ आती हैं इसी कारण इसे चपका रोग भी कहते हैतेज़ बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर,गालों,जीभ,होंठ तालू व मसूड़ों के अंदर,खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों व आयन पर छाले पड़ जाते हैं| ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं जिससे पशु को बहुत दर्द होने लगता है| मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु कहाँ-पीना बन्द कर देते हैं जिससे वह बहुत कमज़ोर हो जाता है|खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा चलने लगता है| गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है| नवजात बच्छे/बच्छियां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाते है| लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं तथा कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं| हालांकि व्यस्क पशु में मृत्यु दर कम (लगभग 10%) है लेकिन इस रोग से पशु पालक को आर्थिक हानि बहुत ज्यादा उठानी पड़ती है| दूध देने वाले पशुओं में दूध के उत्पादन में कमी आ जाती है| ठीक हुए पशुओं का शरीर खुरदरा तथा उनमें कभी कभी हांफना रोग होजाता है| बैलों में भारी काम करने की क्षमता खत्म हो जाती हैं |
उपचार:- इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है लिकिन बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है| रोगी पशु में सेकैन्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं| मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी याँ पोटाश के पानी से धोते हैं| मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है|
यह रोग भी एक विषाणु से पैदा वला छुतदार रोग है जोकि जुगाली करने वाले लगभग सभी पशुओं को होता है| इनमें पशु को तीव्र दस्त अथवा पेचिस लग जाते हैं| यह रोग स्वस्थ पशु को रोगी पशु के सीधे संपर्क में आने से फैलता है| इसके अतिरिक्त वर्तनों तथा देखभाल करने वाले व्यक्ति द्वारा भी यह बीमारी फैल सकती है| इसमें पशु को तेज़ बुखार हो जाता है तथा पशु बेचैन हो जाता है| दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है और पशु की आँखें सुर्ख लाल हो जाती है|2-3 दिन के बाद पशु के मुंह में होंठ, मसूड़े व जीभ के नीचे दाने निकल आटे हैं जो बाद में घाव का रूप ले लेते हैं| पशु में मुंह से लार निकलने लगती है तथा उसे पतले व बदबूदार दस्त लग जाते हैं जिनमें खून भी आने लगता है| इसमें पशु बहुत कमज़ोर हो जाता है तथा उसमें पानी की कमी हो जाती है| इस बीमारी में पशु की 3-9 दिनों में मृत्यु हो जाती है| इस बीमारी के प्रकोप से विश्व भर में लाखों की संख्या में पशु मरते ठे लेकिन अब विश्व स्ट् पर इस रोग के उन्मूलन की योजना के अंतर्गत भारत सरकार सरकार द्वारा लागू की गयी रिन्डरपेस्ट इरेडीकेशन परियोजना के तहत लगातार शत प्रतिशत रोग निरोधक टीकों के प्रयोग से अब यह बीमारी प्रदेश तथा देश में लगभग समाप्त हो चुकी है|
इस रोग को पैदा करने वाले सूक्ष्म विषाणु हलकाये कुत्ते, बिल्ली,बंदर, गीदड़, लोमड़ी या नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं तथा नाडियों के द्वारा मस्तिष्क में पहुंच कर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं| रोग ग्रस्त पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होता है तथा रोगी पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने से अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है| यह बीमारी रोग ग्रस्त पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है अत: इस बीमारी का जन स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्व है| एक बार पशु अथवा मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण पैदा होने के बाद उसका फिर कोई इलाज नहीं है तथा उसकी मृत्यु निश्चित है| विषाणु के शरीर में घाव आदि के माध्यम से प्रवेश करने के बाद 10दिन से 210 दिनों तक की अवधि में यह बीमारी हो सकती है| मस्तिष्क के जितना अधिक नज़दीक घाव होता है उतनी ही जल्दी बीमारी के लक्षण पशु में पैदा हो जाते है जैसे कि सिर अथवा चेहरे पर काटे गए पशु में एक हफ्ते के बाद यह रोग पैदा हो सकता है|
लक्षण :- रेबीज़ मुख्यत: दो रूपों में देखी जाती है,पहला जिसमें रोग ग्रस्त पशु काफी भयानक हो जाता है तथा दूसरा जिसमें वह बिल्कुल शांत रहता है| पहले अथवा उग्र रूप में पशु में रोग के सभी लक्षण स्पष्ट दिखायी देते हैं लेकिन शांत रूप में रोग के लक्षण बहुत कम अथवा लहभ नहीं के बराबर ही होते हैं|
कुत्तों में इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है तथा उनकी आंखे अधिक तेज नज़र आती हैं| कभी-कभी शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है| 2-3 दिन के बाद उसकी बेचैनी बढ़ जाती है तथा उसमें बहुत ज्यादा चिड-चिडापन आ जाता है|वह काल्पनिक वस्तुओं की और अथवा बिना प्रयोजन के इधर-उधर काफी तेज़ी से दौड़ने लगता हैं तथा रास्ते में जो भी मिलता है उसे वह काट लेता हैं|अन्तिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उसकी आवा बदल जाती है, शरीर में कपकपी तथा छाल में लड़खड़ाहट आ जाती है तथा वह लकवा ग्रस्त होकर अचेतन अवस्था में पड़ा रहता है| इसी अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाती है|
गाय व भैंसों में इस बीमारी के भयानक रूप के लक्षण दिखते हैं| पशु काफी उत्तेजित अवस्था में दिखता है तथा वह बहुत तेजी से भागने की कोशिश करता हैं| वह ज़ोर-ज़ोर से रम्भाने लगता है तथा बीच-बीच में जम्भाइयाँ लेता हुआ दिखाई देता है| वह अपने सिर को किसी पेड़ अथवा दीवाल ले साथ टकराता है| कई पशुओं में मद के लक्षण भी दिखायी से सकते हैं| रोग ग्रस्त पशु ही दुर्बल हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है| मनुष्य में इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में उत्तेजित होना, पानी अथवा कोई खाद्य पदार्थ को निगलने में काफी तकलीफ महसूस करना तथा अंत में लकवा लकवा होना आदि है|
उपचार तथा रोकथाम:- एक बार लक्षण पैदा हो जाने के बाद इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है| जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रस्त पशु काट लेता है उसे तुरन्त नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जाकर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाना चाहिए| इस कार्य में ढील बिल्कुल नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि ये टीके तब तक ही प्रभावकारी हो सकते हैं जब तक कि पशु में रोग के लक्षण पैदा नहीं होते|पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए तथा आवारा कुत्तों को समाप्त के देने चाहिए| पालतू कुत्तों का पंजीकरण सथानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए तथा उनके नियमित टीकाकरण का दायित्व निष्ठापूर्वक मालिक को निभाना चाहिए|
गलघोंटू रोग (एच.एस.): गाय व भैंसों में होने वाला एक बहुत ही घातक तथा छूतदार रोग है जुकी अधिकतर बरसात के मौसम में होता है यह गोपशुओं की अपेक्षा भैंसों में अधिक पाया जाता है| यह रोग नहुत तेज़ी से फैलकर बड़ी संख्या मे पशुओं को अपनी चपेट में लेकर उनकी मौर का कारण बन जाता हैं जिससे पशु पालकों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है| इस रोग के प्रमुख लक्षणों में तेज़ बुखार, गले में सूजन, सांस लेने में तकलीफ निकालकर सांस लेना तथा सांस लेते समय तेज़ आवाज होया आदि शामिल है| कईं बार बिना किसी स्पष्ट लक्षणों के ही पशु की अचानक मृत्यु हो जाती है|
उपचार तथा रोकथाम:- इस रोग से ग्रस्त हुए पश को तुरन्त पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए अन्यथा पशु की मौत हो जाती है| सही समय पर उपचार दिए जाने पर रोग ग्रस्त पशु को बचाया जा सकता है| इस रोग की रोकथाम के लिए रोगनिरोधक टीके लगाए जाते हैं| पहला टीका 3 माह की आयु में दूसरा 9 माह की अवस्था में तथा इसके बाद हर साल यह टीका लगाया जाता हैं| ये टीके पशु चिकित्सा संस्थानों में नि:शुल्क लगाए जाते हैं|
जीवाणुओं से फैलने वाला यह रोग गाय व भैंसों दोनों को होता है लिकिन गोपशुओं में यह बीमारी अधिक देखी जाती है तथा इससे अच्छे व स्वस्थ पशु ही ज्यादातर प्रभावित होते हैं| इस रोग में पिछली अथवा अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती हैं जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है| पशु को तेज़ बुखार हो जाता है तथा सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है|
रोग ग्रस्त पशु के उचार हेतू तुरन्त नजदीकी पशु चिकित्सालय में संपर्क करना चाहिए ताकि पशु को शीघ्र उचित उपचार मिल सके| देर करने से पशु को बचना लगभग असंभव हो जाता है क्योंकि जीवाणुओं द्वारा पैदा हुआ जहर (टोक्सीन) शरीर में पूरी को बचना लगभग असंभव हो जाता है जोकि पशु की मृत्यु का कारण बन जाता है| उपचार के लिए पशु को ऊँची डोज़ में प्रोकें पेनिसिलीन के टीके लगाए जाते हैं तथा सूजन वाले स्थान पर भी इसी दवा को सुई द्वारा माँस में डाला जाता है| इस बीमारी से बचाव के लिए पशु चिकित्सक संस्थाओं में रोग निरोधक टीके नि:शुल्क लगाए जाते है अत:पशु पालकों को इस सुविधा का अवश्य लाभ उठाना चाहिए|
जीवाणु जनित इस रोग में गोपशुओं तथा भैंसों में गर्भवस्था के अन्तिम त्रैमास में गर्भपात हो जाता है| यह रोग पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकाता है| मनुष्यों में यह उतार-चढ़ाव वाला बुखार (अज्युलेण्ट फीवर)नामक बीमारी पैदा करता है| पशुओं में गर्भपात से पहले योनि से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है तथा गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है| इसके अतिरिक्त यह जोड़ों में आर्थ्रायटिस (जोड़ों की सूजन) पैदा के सकता है|
अब तक इस रोग का कोई प्रभाव करी इस्लाज नहीं हैं| यदि क्षेत्र में इस रोग के 5% से अधिक पोजिटिव केस हों टो रोग की रोकथाम के लिए बच्छियों में 3-6 माह की आयु में ब्रुसेल्ला-अबोर्टस स्ट्रेन-19 के टीके लगाए जा सकते हैं| पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्यति अपना कर भी इस रोग से बचा जा सकता है|
यह बीमारी पशुओं में एक कोशिकीय जीव जिसे प्रोटोज़ोआ कहते हैं से होती है| बबेसिया प्रजाति के प्रोटोज़ोआ पशुओं के रक्त में चिचडियों के माध्यम से प्रवेश के जाते हैं तथा वे रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में जाकर अपनी संख्या बढ़ने लगते हैं जिसके फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकायें नष्ट होने लगती हैं| लाल रक्त किशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन पेशाब के द्वारा शरीर से बाहर निकलने लगता है जिससे पेशाब का रंग कॉफी के रंग का हो जाता है| कभी-कभी उसे खून वाले दस्त भी लग जाते हैं| इसमें पशु खून की कमी हो जाने से बहुत कमज़ोर हो जाता है पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखायी देने लगते हैं तथा समय पर इलाज ना कराया जाय तो पशु की मृत्यु हो जाती है|
यदि समय पर पशु का इलाज कराया जाये तो पहु को इस बीमारी से बचाया जा सकता हैं| इसमें बिरेनिल के टीके पश के भर के अनुसार मांस में दिए जाते हैं तथा खून बढाने वाली दवाओं का प्रयोग कियस जाता हैं| इस बीमारी से पशुओं को बचाने के लिए उन्हें चिचडियों के प्त्कोप से बचना जरूरी है क्योंकि ये रोग चिचडियों के द्वारा ही पशुओं में फैलता है|
पशुओं के शरीर पर बाह्म परजीवी जैसे कि जुएं,पिस्सु या चिचडी आदि प्रकोप पर पशुओं का खून चूसते हैं जिससे उनमें खून की कमी हो जाती है तथा वे कमज़ोर हो जाते हैं| इन पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता घट जाती है तथा वे अन्य बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं| बहुत से परजीवी जैसे कि चिचडियों आदि पशुओं में कुछ अन्य बीमारी जैसे टीक-फीवर का संक्रमण भी के देते हैं| पशुओं में बाह्म परजीवी के प्रकोप को रोकने के लिए अनेक दवाइयां उपलब्ध हैं जिन्हें पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार प्रयोग करके इनसे बचा जा सकता है|
पशुओं की पाचन नली में भी अनेक प्रकार के परजीवी पाए जाते हैं जिन्हें अंत: परजीवी कहते हैं हैं| ये पशु के पेट, आंतों, यकृत उसके खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं जिससे पहु कमज़ोर हो जाता है तथा वह अन्य बहुत सी बीमारियों का शिकार हो जाता है| इससे पशु की उत्पादन क्षमता में भी कमी आ जाती है| पशुओं को उचित आहार देने के बावजूद यदि वे कमजोर दिखायी दें तो इसके गोबर के नमूनों का पशु चिकित्सालय में परीक्षण करना चाहिए| परजीवी के अंडे गोबर के नमूनों में देखकर पशु को उचित दवा दी जाती है जिससे परजीवी नष्ट हो जाते हैं|
कार्य प्रगति पर है
कार्य प्रगति पर है
(क) सम्पूर्ण दूध- स्वस्थ पशु से प्राप्त किया गया दूध जिसके संघटन में ठोस परिवर्त्तन न किया गया हो, पूर्ण दूध कहलाता है। इस प्रकार के दूध को गाय, बकरी, भैंस की दूध कहलाती है। पूर्ण दूध में वसा तथा वसाविहीन ठोस की न्यूनतम मात्रा गाय में 3.5% तथा 8.5% और भैंस में 6% तथा 9%, क्रमशः रखी गई है।
(ख) स्टेण्डर्ड दूध- यह दूध जिसमें वसा तथा वसाविहीन ठोस की मात्रा दूध से क्रीम निकल कर दूध में न्यूनतम वसा 4.5% तथा वसाविहीन ठोस 8.5% रखी जाती है।
(ग) टोण्ड दूध- पूर्ण दूध में पानी तथा सप्रेश दूध पाऊडर को मिलाकर टोण्ड दूध प्राप्त किया जाता है जिसकी वसा 3% तथा वसाविहीन ठोस की मात्रा 8.5% निर्धारित की गयी है।
(घ) डबल टोण्ड दूध- इस दूध में वसा 1.5% तथा वसाविहीन ठोस 9% निर्धारित रहती है।
(ड.) रिक्न्सटिट्यूटेड दूध- जब दूध के पाऊडर को पानी में घोल कर दूध तैयार किया जाता है जिसमें 1 भाग दूध पाऊडर तथा 7 से 8 भाग पानी मिलाते हैं तो उसमें रिकन्सटिट्यूटेड दूध कहते हैं।
(च) रिकम्बाइण्ड दूध- यह दूध जो बटर आयल, सप्रेस दूध पाऊडर तथा पानी की निश्चित मात्राओं को मिलाकर तैयार किया जाता है उसे रिकम्बाइण्ड दूध कहते हैं। जिसमें वसा की मात्रा 3% तथा वसाविहीन ठोस की मात्रा 8.5% निर्धारित की गई है।
(छ) फिल्ड दूध- जब पूर्ण दूध में से दुग्ध वसा को निकाल कर उसके स्थान पर वनस्पति वसा को मिलाया जाता है उसे फिल्ड दूध कहते हैं।
दही एक दुग्ध-उत्पाद है जिसका निर्माण दूध के जीवाणुज किण्वन द्वारा होता है। लैक्टोज का किण्वन लैक्टिक अम्ल बनाता है, जो दूध प्रोटीन से प्रतिक्रिया कर इसे दही मे बदल देता है साथ ही इसे इसकी खास बनावट और विशेष खट्टा स्वाद भी प्रदान करता है। सोया दही, दही का एक गैर दुग्ध-उत्पाद विकल्प है जिसे सोया दूध से बनाया जाता है।
दही प्रोटीन, कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, विटामिन B6 और विटामिन B12 जैसे पोषक तत्वों से समृद्ध होता है।
छाछ, मट्ठा या तक्र (Buttermilk) एक पेय है जो दही से बनता है। मूलत: दही को मथनी से मथकर घी निकालने के बाद बचे हुए द्रव को छाछ कहते थे। आजकल दूध के किण्वन से बने हुए अनेक पेय भी छाछ की श्रेणी में गिने जाते हैं।
पनीर (Indian cottage cheese) घी निकाले हुए, अथवा पूर्ण दूध में यदि कोई अम्ल (जैसे नींबू का रस) मिला दिया जाय, या बछड़े के पेट से प्राप्त होने वाले रेनेठ नामक पदार्थ को दूध में डाल दिया जाय, तो दूध जम जाता है। इस क्रिया में छेना (केसीन) दूध के जल वाले भाग से अलग हो जाता है। किसी कपड़े से छानकर जल अलग करने पर छेने वाले भाग को निकाल लिया जाता है। इस छेने वाले भाग में केसीन के अतिरिक्त, थोड़ी मात्रा में घी, दुग्धशर्करा तथा जल रहता है। घी अथवा मक्खन निकाले हुए दूध से भी घी रहित पनीर बनाया जाता है।
छेने वाले भाग को, जिसमें दुग्ध, शर्करा तथा दूध में पाए जाने वाले विटामिन भी रहते हैं, विशेष ताप तथा नमी की दशा में किण्वन क्रिया के लिये रख दिया जाता है। इस क्रिया को पनीर का पकाना (Ripening process) कहते हैं। यह कुछ सप्ताहों से लेकर कुछ महीनों तक किया जाता है। इस क्रिया पर ही पनीर की विशेषता निर्भर करती है। जितने ही अधिक समय तक यह पकाने की क्रिया की जाती है, पनीर उतना ही उत्कृष्ट तथा सुवच्य एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। पकाने की यह क्रिया बड़ी जटिल तथा संकीर्ण होती है, क्योंकि निर्मित पनीर की उपादेयता तथा उसके गुण इसी क्रिया पर निर्भर करते हैं। इस क्रिया के कारण पनीर में उपस्थित दुग्धशर्करा लैक्टिक अम्ल में परिणत हो जाती है, छेना अथवा केसीन अधिक सुपाच्य प्रोटीन यौगिकों में बदल जाता है तथा वसा भी सरल यौगिकों में परिणत हो जाती है। किण्वन क्रिया के पूर्व खानेवाला नमक भी थोड़ी मात्रा में पनीर में मिला दिया जाता है। क्रिया के समय प्रयुक्त ताप तथा नमी की मात्रा के अनुसार ही पनीर में एक विशेष प्रकार की मादक गंध तथा तीखा स्वाद उत्पन्न हो जाता है ।
पनीर साधारणत: दो प्रकार का बनाया जाता है :
(1) नम तथा मुलायम, जिसमें जल की मात्रा अधिक रहती है, तथा
(2) सूखा अथवा सख्त किस्म का, जिसमें जल की मात्रा बहुत कम होती है।
बाजार में चार प्रकार के पनीर बिकते हैं :
(1) पूरे दूध से बनाया गया पनीर जिसमें मक्खन विशेष रूप से अधिक मात्रा में मिलाया जाता है,
(2) केवल पूरे दूध से बनाया गया पनीर,
(3) मक्खन निकाले हुए दूध से बना पनीर तथा
(4) मार्गरीन युक्त पनीर।
छेना, दूध से बना एक पदार्थ है जो दूध को फाड़कर बनाया जाता है। दूसरे शब्दों में, उस ताजे पनीर को कहते हैं जिसमे पानी की मात्रा अधिक होती है और यह आसानी से टूट जाता है और इसे ज्यादा देर तक भंडार करने के लिए नहीं बनाया जाता।
दूध से निर्मित भोज्य पदार्थों के एक विविधतापूर्ण समूह का नाम चीज़ (Cheese) है। विश्व के लगभग सभी भागों में भिन्न-भिन्न रंग-रूप एवं स्वाद की चीज़ बनायी जाती हैं। इसमें उच्च गुणवत्ता के प्रोटीन व कैल्शियम के अलावा, फास्फोरस, जिंक विटामिन ए, राइबोफ्लेविन व विटामिन बी2 जैसे पोषक तत्त्व भी पाए जाते हैं। यह दांतों के इनैमल की भी रक्षा करता है और दाँतों को सड़न से बचाता है।
घी एक विशेष प्रकार का मख्खन (बटर) है जो भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन काल से भोजन के एक अवयव के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। भारतीय भोजन में खाद्य तेल के स्थान पर भी प्रयुक्त होता है। यह दूध के मक्खन से बनाया जाता है। दक्षिण एशिया एवं मध्य पूर्व के भोजन में यह एक महत्वपूर्ण अवयव है।
मक्खन बहुत दिनों तक नहीं टिकता। उसका किण्वन होकर वह पूतिगंधी हो जाता है; पर घी यदि पूर्णतया सूखा है तो बहुत दिनों तक टिकता है। घी के स्वाद और गंध ग्राह्य होते हैं। यह जल्द पचता भी है। घी में विटामिन "ए', विटामिन "डी' और विटामिन "ई' रहते हैं। विटामिनों की मात्रा सब ऋतुओं में एक सी नहीं रहती। जब पशुओं को हरी घास अधिक मिलती है तब, अर्थात् बरसात और जाड़े के घी, में, विटामिन की मात्रा बढ़ जाती है।
घी के विशेष प्रकार की गंध होती है, जो दूध में नहीं होती। यह गंध किण्वन और आक्सीकरण के करण 'डाइऐसीटिल' नामक कार्बानिक यौगिक बनने के कारण उत्पन्न होती है।
दूध से जल को तीव्र गति से वाष्पित करने को हम खोआ कहते हैं। इसमें ताप को तेज रखकर ऊबाला जाता है तथा दूध को हर वक्त चलाते रहना होता है। दूध गर्म करने का बर्त्तन का मुँह चौड़ा होना चाहिए। अंतिम वक्त में तापक्रम कम रखना चाहिए नहीं तो खोआ जलने की संभावना अधिक होती है। अगर इसे पैक करके बाजार में बेचना हो तो नमी अवरोधक बटर पेपर में पैकिंग करना चाहिए।
इस प्रक्रिया में यांत्रिक विधि द्वारा दूध की वसा गोलिकाओं तथा दूध के सीरम को एक समान आकार वाले छोटे-छोटे कणों में विभाजित किया जाता है ताकि दूध और वसा एक में समाहित रह सके तथा अलग-अलग न हों। इस प्रक्रिया का उपयोग फ्लेवर्ड दूध बनाने के लिए उपयोगी होता है जैसे सोया मिल्क, स्ट्रोबेरी फ्लेबर्ड मिल्क, मिल्क सेक, आइस्क्रीम मिक्स इत्यादि।
इससे यह फायदा होता है कि दूध आसानी से पचाया जा सकता है। बच्चे एवं उम्रदराज लोगों के लिए भी समान्यरूप से सुपाच्य है तथा इस प्रकार के दूध से वसा तथा क्रिम अलग करना सम्भव नहीं होता है। इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद दही एवं आइस्क्रीम मूलायम हो जाता है। इन प्रक्रिया में फायदा है तो साथ में नुकसान भी है जैसे कि दूध को गर्म करने पर कुछ प्रोटीन फट जाते हैं, दूध में जलने की गंध आती है, विटामिन बी एवं सी खत्म हो जाती है तथा इस प्रकार के दूध के रख रखाव में अति सावधानी बरतनी पड़ती है।
होमोजिनाइजन प्रक्रिया
दूध की प्राप्ति
↓दूध को 5 डिग्री सेल्सियस ठंढा करना
↓दूध को एक जगह इक्ट्ठा करना
↓दूध का स्टैण्डड्राईजेशन
↓दूध को छानना
↓दूध का होमोजिनाइजेशन 60 डिग्री सेल्सियस तथा 2500 पौंड प्रति वर्ग इंच के दवाब से निकालना
↓दूध का निरोगन 72 डिग्री सेल्सियस पर (15 सेकेण्ड पर)
↓दूध को भरना तथा पैकेट या बोतल में बंद करना
↓दूध को ठंढ़ा करना (5 डिग्री सेल्सियस तक)
↓दूध का सुरक्षित रखना (5 डिग्री सेल्सियस ताप पर)
शोध से यह बात साबित हो चुकी है कि जो लोग रोजाना कम से कम एक ग्लास दूध पीते हैं, वे उन लोगों की तुलना में हमेशा मानसिक और बौद्धिक तौर पर बेहतर स्थिति में होते हैं, जो दूध का सेवन नहीं करते।
भारत में गाय की ३० नस्लें पाई जाती हैं। रेड सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लें भारत में दुधारू गायों की प्रमुख नस्लें हैं।
लोकोपयोगी दृष्टि में भारतीय गाय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में वे गाएँ आती हैं जो दूध तो खूब देती हैं, लेकिन उनकी पुंसंतान अकर्मण्य अत: कृषि में अनुपयोगी होती है। इस प्रकार की गाएँ दुग्धप्रधान एकांगी नस्ल की हैं। दूसरी गाएँ वे हैं जो दूध कम देती हैं किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के काम आते हैं। इन्हें वत्सप्रधान एकांगी नस्ल कहते हैं। कुछ गाएँ दूध भी प्रचुर देती हैं और उनके बछड़े भी कर्मठ होते हैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं। भारत की गोजातियाँ निम्नलिखित हैं:
सायवाल गायों में अफगानिस्तानी तथा गीर जाति का रक्त पाया जाता है। इन गायों का सिर चौड़ा, सींग छोटी और मोटी, तथा माथा मझोला होता है। ये पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास लायलपुर, लोधरान, गंजीवार आदि स्थानों में पाई जाती है। ये भारत में कहीं भी रह सकती हैं। एक बार ब्याने पर ये १० महीने तक दूध देती रहती हैं। दूध का परिमाण प्रति दिन १०-१६ लीटर होता है। इनके दूध में मक्खन का अंश पर्याप्त होता है।
इनका मुख्य स्थान सिंध का कोहिस्तान क्षेत्र है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गायों का वर्ण बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। संतानोत्पत्ति के बाद ये ३०० दिन के भीतर कम से कम २००० लीटर दूध देती हैं।
कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मूलस्थान है। वैसे ये काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में भी मिलती हैं। ये सर्वांगी जाति की गाए हैं और इनकी माँग विदेशों में भी है। इनका रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है।
ये गायें दुधारू नहीं होतीं। इनका रंग खाकी होता है तथा गर्दन कुछ काली होती है। अवस्था बढ़ने पर रंग सफेद हो जाता है। ये ग्वालियर के आस-पास पाई जाती हैं।
इनका प्राप्तिस्थान जोधपुर के आस-पास का प्रदेश है। ये गायें भी विशेष दुधारू नहीं होतीं, किंतु ब्याने के बाद बहुत दिनों तक थोड़ा-थोड़ा दूध देती रहती हैं।
ये गायें दुधारू होती हैं। इनका रंग खाकी, भूरा, या सफेद होता है। कच्छ, जैसलमेर, जोधपुर और सिंध का दक्षिणपश्चिमी रेगिस्तान इनका प्राप्तिस्थान है। इनकी खुराक कम होती है।
पीलीभीत, पूरनपुर तहसील और खीरी इनका प्राप्तिस्थान है। इनका मुँह सँकरा और सींग सीधी तथा लंबी होती है। सींगों की लबाई १२-१८ इंच होती है। इनकी पूँछ लंबी होती है। ये स्वभाव से क्रोधी होती है और दूध कम देती हैं।
नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश इनका प्राप्तिस्थान है। ज्वार इनका प्रिय भोजन है। नाड़ी घास और उसकी रोटी बनाकर भी इन्हें खिलाई जाती है। ये गायें दूध खूब देती हैं।
पंजाब के डेरागाजीखाँ जिले में पाई जाती हैं। ये दूध कम देती हैं।
दूध साधारण मात्रा में देती है। प्राप्तिस्थान सतपुड़ा की तराई, वर्धा, छिंदवाड़ा, नागपुर, सिवनी तथा बहियर है। इनका रंग सफेद और कद मझोला होता है। ये कान उठाकर चलती हैं।
ये ८-१२ लीटर दूध प्रतिदिन देती हैं। गायों का रंग सफेद, मोतिया या हल्का भूरा होता हैं। ये ऊँचे कद और गठीले बदन की होती हैं तथा सिर उठाकर चलती हैं। इनका प्राप्तिस्थान रोहतक, हिसार, सिरसा, करनाल, गुडगाँव और जिंद है। हिसार मे पहला गौ अभयारण्य
ये गाएँ दुधारू, सुंदर और मंथरगामिनी होती हैं। प्राप्तिस्थान तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुंटूर, नीलोर, बपटतला तथा सदनपल्ली है। ये चारा कम खाती हैं।
राठ अलवर की गाएँ हैं। खाती कम और दूध खूब देती हैं।
गीर- ये प्रतिदिन ५०-८० लीटर दूध देती हैं। इनका मूलस्थान काठियावाड़ का गीर जंगल है।
देवनी - दक्षिण आंध्र प्रदेश और हिंसोल में पाई जाती हैं। ये दूध खूब देती है।
नीमाड़ी - नर्मदा नदी की घाटी इनका प्राप्तिस्थान है। ये गाएँ दुधारू होती हैं।
अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी नस्लें मैसूर की वत्सप्रधान, एकांगी गाएँ हैं। कंगायम और कृष्णवल्ली दूध देनेवाली हैं।
कार्य प्रगति पर है